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मेरा दिन

भीषण तपती गर्मी एक मई की दुपहरी वह बहुत खुश है, आज उसकी बेटी को खाना मिलेगा। बेटी कहती है.. गर्मी गंदी है बापू स्कूल की छुट्टी तो मिड डे मील भी बन्द ? पर.. आज फिर उसे काम मिला है, सेठ की तीसरी मंजिल उसकी रोटी है, निचली मंजिल के एसी पंखे से आती गर्म हवा.. सर से ईंटों का गट्ठर उतारते समय उसका पसीना सुखाती हैं..। नमक और सत्तू है, उसका ग्लूकोज़.. जो देता है उसे शक्ति अगले दिन काम ढूँढने की सुना है! आज उसका दिन है.. मजदूर दिवस..। दिनभर सोकर थके नेता शाम उठा लेंगे झंडे, जुटाएँगे लोग.. लगाएँगे नारे, मशाल और पोस्टर ले, सभा करेंगे, लगाएँगे भोग.. फिर प्रस्थान करेंगे, अपने-अपने घर को.. वह कहता है- मैं संध्या को खतम करूँगा आज का काम.. पीऊँगा..ठंडा पानी जो अभी तक मुफ्त है.. थोड़ा सा आटा ले.. जाऊँगा अपनी झोपड़, बेटी को खिलाऊँगा.. अपने हाथों, देखूँगा उसके चेहरे की हँसी और खुशी से मनाऊँगा.. अपना दिन..। मेरा दिन है आज, मजदूर दिवस।
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क्या खोज रहा हूँ मैं..

मैं ईश्वर को खोजता था, बहुत-बहुत जन्मों से... अनेक बार, दूर किसी पथ पर उसकी झलक दिखलाई पड़ी । मैं भागता.. भागता.. उसकी तरफ पर तब तक वह निकल चुका होता... और दूर... मेरी तो सीमा थी पर उस असीम की, उस सत्य की कोई सीमा न थी । जन्मों- जन्मों भटकता रहा मैं.. कभी-कभी झलक मिलती थी उसकी किसी तारे के पास जब मैं पहुँचता उस तारे तक... तब तक वह कहीं और निकल चुका होता था । आखिर बहुत थका..बहुत परेशान..और बहुत प्यासा... एक दिन मैं उसके द्वार पर पहुँच ही गया । मैं उसकी सीढियाँ चढ़ गया । परमात्मा के भवन की सीढ़ियाँ मैंने पार कर लीं  । मैं उसके द्वार पर खड़ा हो गया.. सांकल मैंने हाथ में ले ली बजाने को ही था.. तभी... मुझे ख्याल आया... अगर कहीं वह मिल ही गया तो क्या होगा? फिर मैं क्या करूँगा? अब तक तो एक बहाना था चलाने का.. कि.. ईश्वर को ढूँढता हूँ.. फिर तो बहाना भी नहीं रहेगा । अपने समय को काटने का एक बहाना अपने को व्यर्थ न मानने का... सार्थक बनाए रखने की एक कल्पना थी । द्वार पर खड़े होकर घबराया.. कि द्वार खडकाऊं कि न खडकाऊं । क्योंकि खटकाने के बा

वे बूढ़े

वे बूढ़े.. तब से करते हैं...लड़ाई, अपने आप से..जब वे पैदा करते हैं अपने बच्चे.. करते हैं जीवन संघर्ष.. काम...कड़ी मेहनत, झेलते हैं..सहते है..तमाम क्लेश, क्लांति.. कभी करते क्रोध, तो कभी समझाते शांति.. पर... आदर्शों के साथ जीना.. और देना अच्छे संस्कार... रहता है सदा उनका लक्ष्य। और फिर बीतता है समय... जब वे दोनों, अपने दोनों की बगिया को सींचते हैं, लगाते हैं अपना समय.. अपना सारा मन..सारा धन अपने बच्चों पर.. उनका ये निवेश... उनका कर्तव्य ही तो है.. जी तोड़ मेहनत से- अपने सभी तंतुओं को बटोरकर एक-एक पाई जोड़कर वे खड़ा करते हैं, उनके लिए आधार.. जो जीवन की आँधी में हिले नहीं, देते है घनी छाया- बचाए जो धूप के थपेड़ों से से.. पर ये निवेश भी डूब जाता है, सट्टा बाजार की तरह.. जब..उनके दोनों.. इन दोनों को जमा कर देते हैं किसी वृद्ध घर में और सिखाते हैं औकात, बताते हैं गलतियाँ उनके जीवन की। और तब... लगता है उन्हें.. जैसे यह पिछले जनम का कुछ चक्कर तो जरूर है.. पर.. यही तो शाश्वत सत्य है, औलाद तो हमेशा से ऐसी ही रही है भाई, जिसने मरने के बाद भी नहीं छोड़ा.. उनकी मि

सुनो कहानी

कछुआ और खरगोश **************** यह कहानी जो हम बचपन आए सुनते आ रहे हैं। मैनेजमेंट कॉलेज में इसे कैसे सुनाया जाता है , देखिए, पढ़िए। . . . एक बार खरगोश को अपनी तेज चाल पर घमंड हो गया और वो जो मिलता उसे दौड़ लगाने के लिए चुनौती देता। कछुए ने उसकी चुनौती स्वीकार कर ली। और फिर.... दौड़ आरम्भ हुई। खरगोश तेजी से भागा और काफी आगे जाने पर पीछे मुड़ कर देखा, कछुआ कहीं आता नज़र नहीं आया, उसने मन ही मन सोचा कछुए को तो यहाँ तक आने में बहुत समय लगेगा, चलो थोड़ी देर आराम कर लेते हैं, और वह एक पेड़ के नीचे लेट गया। लेटे-लेटे  कब उसकी आँख लग गयी पता ही नहीं चला। उधर कछुआ धीरे-धीरे मगर लगातार चलता रहा। बहुत देर बाद जब खरगोश की आँख खुली तो कछुआ गंतव्य तक पहुँचने वाला था। खरगोश तेजी से भागा, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी और कछुआ जीत गया था। Moral of the story: Slow and steady wins the race. धीमा और लगातार चलने वाला ही जीतता है। ये कहानी तो हम सब जानते हैं, अब आगे की कहानी देखते हैं: रेस हारने के बाद खरगोश निराश हो गया, उसने अपनी हार पर चिंतन किया और उसे समझ आया है कि वो अति आत्मविश्वा

तीन गुण

तीन गुण ******* जीवन के तीन गुण सफलता सम्पन्नता और अवस्था अपनी तरफ खींचती है। मित्रों को.. विरोधियों को भी... सदा से । सभी बन जाते हैं मित्र। छलकने लगता है प्रेम। पर... यह 'पर' बड़ा गहरा सूचक है। जैसे ही यह तीनों ढलान पर क्षीण होते है, साफ दिखने लगता है सबका.. ... प्रेम। क्योंकि... उनमें से कुछ प्रेम करते हैं... हृदय से, कुछ देह से, और कुछ... बुद्धि से। एक निष्काम, रहेगा सर्वदा। दूसरा सकाम... चला जाएगा, और... तीसरा, जो प्रेम की आड़ में है, पूर्ण विलोम। रे...बचना इसी से है... रहना है.. सा व धा न।

जिसने समझा उसने पाया

एक गाँव था... छोटा सा। गाँव मे एक वृद्ध साधुबाबा भी रहते थे। गाँव से थोड़ी सी दूरी पर एक मंदिर था, बड़ा दिव्य। वह बाबाजी उसमें कन्हैया की पूजा-अर्चना करते। प्रतिदिन का उनका एक नियम था कि अपनी झोपड़ी से निकल के कर मंदिर जाते और सायंकाल भगवान के सम्मुख दीपक जलाते। उसी गांव में एक नास्तिक व्यक्ति भी रहता था। जैसे ही वह साधु दीपक जलाते और घर के लिए वापस निकलते, यह व्यक्ति भी प्रतिदिन मंदिर में जाकर दीपक को बुझा देता था। साधु ने कई बार उसे समझाने का प्रयत्न किया पर वह व्यक्ति कहता- भगवान हैं तो स्वयं ही आकर मुझे दीपक बुझाने से क्यों नहीं रोक देते। यह क्रम महीनों, वर्षों से चल रहा था । एक दिन की बात, मौसम कुछ ज्यादा ही खराब था, आँधी और तूफान के साथ मूसलाधार वर्षा ज्यों थमने का नाम ही न ले रही थी। साधू ने बहुत देर तक मौसम साफ होने की प्रतीक्षा की, और सोचा "इतने तूफान में यदि मैं भीगते, परेशान हुए मंदिर गया भी और दीपक जला भी दिया तो वह शैतान नास्तिक आकर बुझा ही देगा, रोज ही बुझा देता है" अब आज नहीं जाता हूँ। कल प्रभु से क्षमा माँग लूँगा। वैसे भी भगवान कौन सा दर्शन ही द